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जय श्री कृष्ण जी  भगवान श्रीकृष्ण को योगेश्वर क्यों कहा गया ? By वनिता कासनियां पंजाब योगेश्वर भगवान कृष्ण को दी गई एक अत्यंत उपयुक्त उपाधि है। इस शब्द का उद्देश्य इंद्रियों का स्वामी है। कृष्ण, सर्वोच्च चेतना ने मानव जाति को उसकी नींद और अज्ञानता से मुक्त करने के लिए पृथ्वी पर उतरने का विकल्प चुना। कृष्ण ने अपने जीवन में कई अलौकिक उपलब्धियां हासिल कीं। पूर्णावतार (पूर्ण अवतार) के रूप में, वे हमेशा भौतिक दुनिया के किसी भी बंधन से दूर अस्तित्व की आनंदमय स्थिति में रहे। यही एक कारण है कि कृष्ण को योगेश्वर कहा जाता है। एक योगी एक सुपर इंसान है जो जीवन के उच्च और अधिक योग्य लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निम्न झुकावों का त्याग करता है। एक योगी को अपनी परिपक्वता के स्तर और श्रेष्ठ क्षमताओं को साबित करने के लिए अपने व्रत या व्रत पर दृढ़ रहना चाहिए। अपने भक्त की मन्नत को पूरा करने के लिए कृष्ण ने इस संबंध में एक कदम और आगे बढ़कर अपनी मन्नत का त्याग कर दिया। ऐसा करके, उन्होंने साबित किया कि वह एक श्रेष्ठ योगी या योगेश्वर, योगियों के भगवान हैं। कृष्ण के इस पहलू को उजागर करने वाली घटना यहाँ...

हनुमानजी को तत्काल प्रसन्न करने के लिये उनके बारह नामों की स्तुति करें । By वनिता कासनियां पंजाब अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌।सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥भावार्थ:-अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन (को ध्वंस करने) के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान्‌जी को मैं प्रणाम करता हूँ॥हनुमानजी से बड़ा भगवान का दूसरा कोई भक्त नहीं है। हनुमानजी अशरण की शरण, दीनजनों के सहाय, मंगलकारी और संकटहारी हैं। भक्तों के कष्ट से व्याकुल होकर उनके दु:ख-दारिद्रय, आधि-व्याधि तथा समस्त विपत्तियों को दूर करने के लिए वे सदा तैयार रहते हैं; इसलिए जो लोग हनुमानजी के नामजप का आश्रय लेते हैं वे उनकी कृपा से निहाल हो जाते हैं।आनन्दरामायण में दी गयी हनुमानजी के बारह नामों की स्तुति अद्भुत चमत्कारी हैं। इनका नित्य पाठ-स्मरण करने से मनुष्य कठिन-से-कठिन परिस्थितियों से ऐसे निकल जाता है जैसे गाय के खुर से बने गड्डे को लांघा हो। आवश्यकता केवल हनुमानजी और उनके नामों में पूर्ण श्रद्धा और विश्वास रखने की है। आनन्दरामायण में दी गयी हनुमानजी के बारह नामों की स्तुति ।हनुमानंजनीसूनुर्वायुपुत्रो महाबल:।रामेष्ट: फाल्गुनसख: पिंगाक्षोऽमितविक्रम:।। उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशन:। लक्ष्मणप्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा।।एवं द्वादश नामानि कपीन्द्रस्य महात्मन:।स्वापकाले प्रबोधे च यात्राकाले च य: पठेत्।।तस्य सर्वभयं नास्ति रणे च विजयी भवेत्।राजद्वारे गह्वरे च भयं नास्ति कदाचन।। (आनन्दरामायण ८।१३।८-११)हनुमानजी के बारह नाम और उनका अर्थ इस स्तुति में दिए गए बारह नाम हनुमानजी के गुणों को दर्शाते हैं। श्रीराम और सीताजी के लिए हनुमानजी ने जो सेवाकार्य किया, उन्हीं का वर्णन इन नामों में हैं–1. हनुमान–इन्द्र के वज्र से जिनकी बायीं हनु (ठुड्डी) टूट गयी है, उस टूटी हुई विशेष हनु के कारण वे ‘हनुमान’ कहलाते हैं।2. अंजनीसूनु–कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को प्रदोषकाल में अंजनादेवी के गर्भ से हनुमानजी का जन्म हुआ था इसलिए हनुमानजी ‘अंजनीसूनु’, ‘आंजनेय’ या ‘अंजनीसुत’ कहलाते हैं।3. वायुपुत्र–हनुमानजी वायुदेव के मानस औरस पुत्र हैं, इसलिए उन्हें ‘वातात्मज’, ‘पवनपुत्र’, ‘वायुनन्दन’ और ‘मारुति’ नामों से जाना जाता है।4. महाबल–हनुमानजी अत्यन्त बलशाली हैं। श्रीरामजी ने हनुमानजी के बल का अगस्त्यमुनि से वर्णन करते हुए कहा–’रावण और वाली के बल की कहीं तुलना नहीं है; परन्तु मेरा विचार है कि दोनों का बल भी हनुमानजी के बल की बराबरी नहीं कर सकता।’5. रामेष्ट–हनुमानजी भगवान श्रीरामजी के प्रिय भक्त हैं।6. फाल्गुनसख–फाल्गुन का अर्थ है अर्जुन और सख का अर्थ है मित्र अर्थात् अर्जुन के मित्र। महाभारतयुद्ध के समय हनुमानजी अर्जुन के रथ की ध्‍वजा पर विराजित थे। उन्‍होंने अर्जुन की सहायता की इसलिए उन्‍हें अर्जुन का मित्र कहा गया है।7. पिंगाक्ष–श्रीहनुमान के नेत्र थोड़ी लालिमा से युक्त पिंग (पीले) रंग के हैं।8. अमितविक्रम–अमित का अर्थ है बहुत अधिक और विक्रम का अर्थ है पराक्रमी। हनुमानजी ने अपने पराक्रम के बल पर ऐसे कार्य किए जिन्‍हें करना देवताओं के लिए भी कठिन था इसलिए उन्‍हें अमितविक्रम कहा गया है। ब्रह्मवैवर्तपुराण में हनुमानजी ने अपने पराक्रम के विषय में स्वयं गर्जना की है–’मैं इस विशाल लंका को वानरी के बच्चे के समान छोटा समझता हूँ। समुद्र को मूत्र के समान, समस्त पृथ्वी को छोटे मिट्टी के पात्र (सकोरे) के समान तथा असंख्य सैनिकों से युक्त रावण को चींटियों के झुंड के तुल्य मानता हूँ।’9. उदधिक्रमण–उदधिक्रमण का अर्थ है समुद्र को लांघने (अतिक्रमण करने) वाले। मनुष्य को जीवन में हर कदम पर संघर्ष करना पड़ता है। संघर्ष से भयभीत होने वाला व्यक्ति विजय से पहले ही पराजय स्वीकार कर लेता है। परन्तु प्रभु-विश्वासी मनुष्य को इन संघर्षों की लहरों पर भी आनन्द का संगीत सुनाई देता है। रामदूत हनुमान द्वारा समुद्र लांघने का कार्य हमारे मन में संघर्षों पर विजय पाने की प्रेरणाएं जगाता है।10. सीताशोकविनाशन–माता सीता के शोक का निवारण करने के कारण हनुमानजी को सीताशोकविनाशन कहा जाता है।11. लक्ष्मणप्राणदाता–जब रावण के पुत्र इंद्रजीत (मेघनाद) ने शक्ति का उपयोग कर लक्ष्‍मण को मूर्च्छित कर दिया, तब हनुमानजी संजीवनी बूटी लेकर आए थे। उसी बूटी के प्रभाव से लक्ष्‍मण को होश आया था; इसलिए हनुमानजी को लक्ष्‍मणप्राणदाता भी कहा जाता है।12. दशग्रीवदर्पहा–दशग्रीव यानी रावण और दर्पहा यानी घमंड तोड़ने वाला। दशग्रीवदर्पहा का अर्थ है रावण का घमंड तोड़ने वाला। हनुमानजी ने लंका जाकर सीताजी का पता लगाया और रावण के पुत्र अक्षयकुमार का वधकर लंकादहन किया। इस प्रकार हनुमानजी ने कई बार रावण का घमंड तोड़ा था। इसलिए इनको दशग्रीवदर्पहा भी कहा जाता है।बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रमहनुमानजी के बारह नामों के पाठ का फल जब मन किसी अज्ञात भय से घबराता हो, किसी अनहोनी की आशंका हो या कोई भीषण संकट उपस्थित हो गया हो तो हनुमानजी के इन बारह नामों का प्रात:काल सोकर उठने पर या रात्रि को सोते समय अथवा यात्रा आरम्भ करते समय पाठ करना चाहिए इससे उस व्यक्ति के सारे भय दूर हो जाते हैं; क्योंकि हनुमानजी को ‘संकटमोचन’ कहा जाता है।भगवान श्रीराम ने भी संकट-समुद्र को हनुमानजी की सहायता से पार किया था। –कलिकाल में विशेषकर युवकों व बच्चों में हनुमानजी की उपासना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि हनुमानजी बुद्धि, बल और वीर्य प्रदान कर भक्तों की रक्षा करते हैं। हनुमानजी के बारह नामों का जप उनकी उपासना का सबसे सरल रूप है।–हनुमानजी के इन बारह नामों का जाप करते रहने से दरिद्रता और दु:खों का दहन होता है क्योंकि हनुमानजी अष्टसिद्धि नवनिधि के दाता हैं। –इन नामों के जप से समस्त अमंगलों का नाश होता है। परिवार में दीर्घकाल तक सुख-शान्ति रहती है और मनुष्य के सभी मनोरथों की पूर्ति होती है। –मनुष्य को राजदरबार अर्थात् सरकारी झंझटों से मुक्ति मिल जाती है।–इन बारह नामों के उच्चारण करने से भूत-प्रेत पिशाच, यक्षराक्षस आदि भाग जाते हैं। –इन नामों के स्मरण करने से मनुष्य की मानसिक दुर्बलता दूर होती है। –हनुमानजी की नामोपासना करने से साधक में भी हनुमानजी के गुण–शूरवीरता, दक्षता, बल, धैर्य, विद्वता, नीतिज्ञान व पराक्रम आदि आ जाते हैं।–हनुमानजी के नामजप से मनुष्य बुद्धि, बल, कीर्ति, निर्भीकता, आरोग्य और वाक्यपटुता आदि प्राप्त करता है। –हनुमानजी भक्तों को रात-दिन कृपा का दान देते रहते हैं, उनके भय को मिटाते और क्लेशों को हर लेते हैं–नाशै रोग हरै सब पीरा, जपत निरन्तर हनुमत वीरा।।–इन बारह नामों के जप से दुष्टों और वैरियों का अंत हो जाता है और मनुष्य की हर तरह से रक्षा होती है। –हनुमानजी समस्त विघ्नों का निवारण कर आश्रितजनों का मन प्रसन्न कर देते हैं।मंगल-मूरत मारुत-नंदन। सकल-अमंगल मूल-निकंदन। जय सियाराम जय जय हनुमान।।*

हनुमानजी को तत्काल प्रसन्न करने के लिये उनके बारह नामों की स्तुति करें । By वनिता कासनियां पंजाब अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌। सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥ भावार्थ:-अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन (को ध्वंस करने) के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान्‌जी को मैं प्रणाम करता हूँ॥ हनुमानजी से बड़ा भगवान का दूसरा कोई भक्त नहीं है। हनुमानजी अशरण की शरण, दीनजनों के सहाय, मंगलकारी और संकटहारी हैं। भक्तों के कष्ट से व्याकुल होकर उनके दु:ख-दारिद्रय, आधि-व्याधि तथा समस्त विपत्तियों को दूर करने के लिए वे सदा तैयार रहते हैं; इसलिए जो लोग हनुमानजी के नामजप का आश्रय लेते हैं वे उनकी कृपा से निहाल हो जाते हैं। आनन्दरामायण में दी गयी हनुमानजी के बारह नामों की स्तुति अद्भुत चमत्कारी हैं। इनका नित्य पाठ-स्मरण करने से मनुष्य कठिन-से-कठिन परिस्थितियों से ऐसे निकल जाता है जैसे गाय के खुर से बने गड्डे को...
ॐ नमः शिवाय By वनिता कासनियां पंजाब सृष्टि शिथिल न पड़ जाये इसलिए शिव तांडव नृत्य करते हैं। जो शिव करते हैं। वही सबको करना पड़ता है। शिव तांडव करते हैं। तो योगमाया पार्वती लास्य नृत्य करती हैं । तांडव उग्र है। एवं लास्य सौम्य है। उग्रता और सौम्यता के मिश्रण से ही सृजन होता है। शिव के तांडव में ही जीवन का स्पंदन छिपा हुआ है। शिव से ही सब सीखते है। पाणिनि व्याकरण प्रतियोगिता में हार गये तुरन्त शिव शरणम् हुये शिवोपासना सम्पूर्ण होने पर शिव ने चौदह बार डमरू बजाया और व्याकरण के चौदह सूत्र प्रादुर्भाव में आ गये । १ अइउण् , २ ऋलृक् ३ एओड्. 4 ऐऔच् ५ हयवरट् ६ लण् ७ ञमङणनम् ८ झभञ् ९ घढधष् १० जबगडदश् ११ खफछठथचतव् १२ कपय् १३ शषसर् १४ हल् ॥ पाणिनि ने इन्ही चौदह सूत्रों से एक एक कर अदभुत व्याकरण कोष की रचना की और इस प्रकार मनुष्य को व्याकरण की प्राप्ति हुई । कुछ नया प्राप्त करने के लिऐ , कुछ नया अविष्कृत करने के लिऐ शिव मनुष्य को माध्यम बना देते हैं। इस पृथ्वी पर मनुष्य केवल परोपकार के लिऐ ही भेजा गया है। उसने भी कुछ खोजा शिव के माध्यम से , शाश्वत बात कही । आध्यात्मिक साधकों को अपने मुख से...

*भक्त की भक्ति*एक गरीब बालक था जो कि अनाथ था। एक दिन वो बालक एक संत के आश्रम में आया और बोला कि बाबा आप सब का ध्यान रखते है, मेरा इस दुनिया मेँ कोई नही है तो क्या मैँ यहाँ आपके बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम में रह सकता हूँ ?बालक की बात सुनकर संत बोले बेटा तेरा नाम क्या है ? उस बालक ने कहा मेरा कोई नाम नहीँ हैँ।तब संत ने उस बालक का नाम रामदास रखा और बोले की अब तुम यहीँबाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम मेँ रहना। रामदास वही रहने लगा और बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम के सारे काम भी करने लगा।उन संत की आयु 80 वर्ष की हो चुकी थी। एक दिन वो अपने शिष्यो से बोले की मुझे तीर्थ यात्रा पर जाना हैँ तुम मेँ से कौन कौन मेरे मेरे साथ चलेगा और कौन कौन आश्रम मेँ रुकेगा ?संत की बात सुनकर सारे शिष्य बोले की हम आपके साथ चलेंगे.! क्योँकि उनको पता था की यहाँ आश्रम मेँ रुकेंगे तो सारा काम करना पड़ेगा इसलिये सभी बोले की हम तो आपके साथ तीर्थ यात्रा पर चलेंगे।अब संत सोच मेँ पड़ गये की किसे साथ ले जाये और किसे नहीँ क्योँकि आश्रम पर किसी का रुकना भी जरुरी था।बालक रामदास संत के पास आया और बोला बाबा अगर आपको ठीक लगे तो मैँ यहीँ बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम पर रुक जाता हूँ।संत ने कहा ठीक हैँ पर तुझे काम करना पड़ेगा बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम की साफ सफाई मे भले ही कमी रह जाये पर ठाकुर जी की सेवा मे कोई कमी मत रखना।रामदास ने संत से कहा की बाबा मुझे तो ठाकुर जी की सेवा करनी नहीँ आती आप बता दिजिये के ठाकुर जी की सेवा कैसे करनी है ? फिर मैँ कर दूंगा।संत रामदास को अपने साथ मंदिर ले गये वहाँ उस मंदिर मे राम दरबार की झाँकी थी। श्रीराम जी, सीता जी, लक्ष्मण जी और हनुमान जी थे।संत ने बालक रामदास को ठाकुर जी की सेवा कैसे करनी है सब सिखा दिया।रामदास ने गुरु जी से कहा की बाबा मेरा इनसे रिश्ता क्या होगा ये भी बता दो क्योँकि अगर रिश्ता पता चल जाये तो सेवा करने मेँ आनंद आयेगा।उन संत ने बालक रामदास कहा की तू कहता था ना की मेरा कोई नहीँ हैँ तो आज से ये राम जी और सीता जी तेरे माता-पिता हैँ।रामदास ने साथ मेँ खड़े लक्ष्मण जी को देखकर कहा अच्छा बाबा और ये जो पास मेँ खड़े है वो कौन है ?संत ने कहा ये तेरे चाचा जी है और हनुमान जी के लिये कहा की ये तेरे बड़े भैय्या है।रामदास सब समझ गया और फिर उनकी सेवा करने लगा। संत शिष्योँ के साथ यात्रा पर चले गये।आज सेवा का पहला दिन था, रामदास ने सुबह उठकर स्नान किया ,आश्रम की साफ़ सफाई की,और भिक्षा माँगकर लाया और फिर भोजन तैयार किया फिर भगवान को भोग लगाने के लिये मंदिर आया।रामदास ने श्री राम सीता लक्ष्मण और हनुमान जी आगे एक-एक थाली रख दी और बोला अब पहले आप खाओ फिर मैँ भी खाऊँगा।रामदास को लगा की सच मेँ भगवान बैठकर खायेंगे. पर बहुत देर हो गई रोटी तो वैसी की वैसी थी।तब बालक रामदास ने सोचा नया नया रिश्ता बना हैँ तो शरमा रहेँ होँगे। रामदास ने पर्दा लगा दिया बाद मेँ खोलकर देखा तब भी खाना वैसे का वैसा पडा था।अब तो रामदास रोने लगा की मुझसे सेवा मे कोई गलती हो गई इसलिये खाना नहीँ खा रहेँ हैँ !और ये नहीँ खायेंगे तो मैँ भी नहीँ खाऊँगा और मैँ भूख से मर जाऊँगा..! इसलिये मैँ तो अब पहाड़ से कूदकर ही मर जाऊँगा।रामदास मरने के लिये निकल जाता है तब भगवान राम जी हनुमान जी को कहते हैँ हनुमान जाओ उस बालक को लेकर आओ और बालक से कहो की हम खाना खाने के लिये तैयार हैँ।हनुमान जी जाते हैँ और रामदास कूदने ही वाला होता हैँ की हनुमान जी पीछे से पकड़ लेते हैँ और बोलते हैँ क्याँ कर रहे हो?रामदास कहता हैँ आप कौन ? हनुमान जी कहते है मैँ तेरा भैय्या हूँ इतनी जल्दी भूल गये ?रामदास कहता है अब आये हो इतनी देर से वहा बोल रहा था की खाना खा लो तब आये नहीँ अब क्योँ आ गये ?तब हनुमान जी बोले पिता श्री का आदेश हैँ अब हम सब साथ बैठकर खाना खायेँगे। फिर राम जी, सीता जी, लक्ष्मण जी , हनुमान जी साक्षात बैठकर भोजन करते हैँ।इसी तरह रामदास रोज उनकी सेवा करता और भोजन करता।सेवा करते 15 दिन हो गये एक दिन रामदास ने सोचा घर मैँ ५ लोग हैं,सारा काम में ही अकेला करता हुँ ,बाकी लोग तो दिन भर घर में आराम करते है.मेरे माँ, बाप ,चाचा ,भाई तो कोई काम नहीँ करते सारे दिन खाते रहते हैँ. मैँ ऐसा नहीँ चलने दूँगा।रामदास मंदिर जाता हैँ ओर कहता हैँ पिता जी कुछ बात करनी हैँ आपसे।राम जी कहते हैँ बोल बेटा क्या बात हैँ ?रामदास कहता हैँ की घर में मैं सबसे छोटा हुँ ,और मैं ही सब काम करता हुँ।अब से मैँ अकेले काम नहीँ करुंगा आप सबको भी काम करना पड़ेगा,आप तो बस सारा दिन खाते रहते हो और मैँ काम करता रहता हूँ अब से ऐसा नहीँ होगा।राम जी कहते हैँ तो फिर बताओ बेटा हमेँ क्या काम करना है?रामदास ने कहा माता जी (सीताजी) अब से रसोई आपके हवाले. और चाचा जी (लक्ष्मणजी) आप घर की साफ़ सफाई करियेगा. भैय्या जी (हनुमान जी)शरीर से मज़बूत हैं ,जाकर जंगल से लकड़ियाँ लाइयेंगे. पिता जी (रामजी) आप बाज़ार से राशन लाइए और घर पर बैठकर पत्तल बनाओँगे। सबने कहा ठीक हैँ।मैंने बहुत दिन अकेले सब काम किया अब मैं आराम करूँगा. अब सभी साथ मिलकर काम करते हुऐँ एक परिवार की तरह सब साथ रहने लगेँ।एक दिन वो संत तीर्थ यात्रा से लौटे तो देखा आश्रम तो शीशे जैसा चमक रहा है, वो बहुत प्रसन्न हुए.मंदिर मेँ गये और देखा की मंदिर से प्रतिमाऐँ गायब हैँ.संत ने सोचा कहीँ रामदास ने प्रतिमा बेच तो नहीँ दी ? संत ने रामदास को बुलाया और पूछा भगवान कहा गये रामदास भी अकड़कर बोला की मुझे क्या पता हनुमान भैया जंगल लकड़ी लाने गए होंगे,लखन चाचा झाड़ू पोछा कर रहे होंगे,पिताजी राम पत्तल बन रहे होंगे माता सीता रसोई मेँ काम कर रही होंगी. संत बोले ये क्या बोल रहा ? रामदास ने कहा बाबा मैँ सच बोल रहा हूँ जब से आप गये हैँ ये चारोँ काम मेँ लगे हुऐँ हैँ।वो संत भागकर रसोई मेँ गये और सिर्फ एक झलक देखी की सीता जी भोजन बना रही हैँ राम जी पत्तल बना रहे है और फिर वो गायब हो गये और मंदिर मेँ विराजमान हो गये।संत रामदास के पास गये और बोले आज तुमने मुझे मेरे ठाकुर का दर्शन कराया तू धन्य हैँ। और संत ने रो रो कर रामदास के पैर पकड़ लिये...!रामदास जैसे भोले, निश्छल भक्तो की भक्ति से विवश होकर भगवान को भी साधारण मनुष्य की तरह जीवन व्यतीत करने आना *।।जय जय श्री राम।।*

*भक्त की भक्ति* एक गरीब बालक था जो कि अनाथ था। एक दिन वो बालक एक संत के आश्रम में आया और बोला कि बाबा आप सब का ध्यान रखते है, मेरा इस दुनिया मेँ कोई नही है तो क्या मैँ यहाँ आपके बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम में रह सकता हूँ ? बालक की बात सुनकर संत बोले बेटा तेरा नाम क्या है ? उस बालक ने कहा मेरा कोई नाम नहीँ हैँ। तब संत ने उस बालक का नाम रामदास रखा और बोले की अब तुम यहीँबाल वनिता महिला वृद्ध  आश्रम मेँ रहना। रामदास वही रहने लगा और बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम के सारे काम भी करने लगा। उन संत की आयु 80 वर्ष की हो चुकी थी। एक दिन वो अपने शिष्यो से बोले की मुझे तीर्थ यात्रा पर जाना हैँ तुम मेँ से कौन कौन मेरे मेरे साथ चलेगा और कौन कौन आश्रम मेँ रुकेगा ? संत की बात सुनकर सारे शिष्य बोले की हम आपके साथ चलेंगे.! क्योँकि उनको पता था की यहाँ आश्रम मेँ रुकेंगे तो सारा काम करना पड़ेगा इसलिये सभी बोले की हम तो आपके साथ तीर्थ यात्रा पर चलेंगे। अब संत सोच मेँ पड़ गये की किसे साथ ले जाये और किसे नहीँ क्योँकि आश्रम पर किसी का रुकना भी जरुरी था। बालक रामदास संत के पास आया और बोला बाबा अगर आपको ठीक लगे ...

हनुमान का सागर पार करना🙏🙏 बड़े बड़े गजराजों से भरे हुए वनिता पर्वत के समतल प्रदेश में खड़े हुए हनुमान जी वहाँ जलाशय में स्थित हुए विशालकाय हाथी के समान जान पड़ते थे। सूर्य, इन्द्र, पवन, ब्रह्मा आदि देवों को प्रणाम कर हनुमान जी ने समुद्र लंघन का दृढ़ निश्चय कर लिया और अपने शरीर को असीमित रूप से बढ़ा लिया। उस समय वे अग्नि के समान जान पड़ते थे। उन्होंने अपने साथी वानरों से कहा, हे मित्रों! जैसे श्री रामचन्द्र जी का छोड़ा हुआ बाण वायुवेग से चलता है वैसे ही तीव्र गति से मैं लंका में जाउँगा और वहाँ पहुँच कर सीता जी की खोज करूँगा। यदि वहाँ भी उनका पता न चला तो रावण को बाँध कर रामचन्द्र जी के चरणों में लाकर पटक दूँगा। आप विश्वास रखें कि मैं सर्वथा कृतकृत्य होकर ही सीता के साथ लौटूँगा अन्यथा रावण सहित लंकापुर को ही उखाड़ कर लाउँगा। इतना कह कर हनुमान आकाश में उछले और अत्यन्त तीव्र गति से लंका की ओर चले। उनके उड़ते ही उनके झटके से साल आदि अनेक वृक्ष पृथ्वी से उखड़ गये और वे भी उनके साथ उड़ने लगे। फिर थोड़ी दूर तक उड़ने के पश्चात् वे वृक्ष एक-एक कर के समुद्र में गिरने लगे। वृक्षों से पृथक हो कर सागर में गिरने वाले नाना प्रकार के पुष्प ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो शरद ऋतु के नक्षत्र जल की लहरों के साथ अठखेलियाँ कर रहे हों। तीव्र गति से उड़ते हुए महाकपि पवनसुत ऐसे प्रतीत हो रहे थे जैसे कि वे महासागर एवं अनन्त आकाश का आचमन करते हुये उड़े जा रहे हैं। तेज से जाज्वल्यमान उनके नेत्र हिमालय पर्वत पर लगे हुये दो दावानलों का भ्रम उत्पन्न करते थे। कुछ दर्शकों को ऐसा लग रहा था कि आकाश में तेजस्वी सूर्य और चन्द्र दोनों एक साथ जलनिधि को प्रकाशित कर रहे हों। उनका लाल कटि प्रदेश पर्वत के वक्षस्थल पर किसी गेरू के खान का भ्रम पैदा कर रहा था। हनुमान के बगल से जो तेज आँधी भारी स्वर करती हुई निकली थी वह घनघोर वर्षाकाल की मेघों की गर्जना सी प्रतीत होती थी। आकाश में उड़ते हये उनके विशाल शरीर का प्रतिबम्ब समुद्र पर पड़ता था तो वह उसकी लहरों के साथ मिल कर ऐसा भ्रम उत्पन्न करता था जैसे सागर के वक्ष पर कोई नौका तैरती चली जा रही हो। इस प्रकार हनुमान निरन्तर आकाश मार्ग से लंका की ओर बढ़े जा रहे थे। हनुमान के अद्भुत बल और पराक्रम की परीक्षा करने के लिये देवता, गन्धर्व, सिद्ध और महर्षियों ने नागमाता सुरसा के पास जा कर कहा, हे नागमाता! तुम जा कर वायुपुत्र हनुमान की यात्रा में विघ्न डाल कर उनकी परीक्षा लो कि वे लंका में जा कर रामचन्द्र का कार्य सफलता पूर्वक कर पायेंगे या नहीं। ऋषियों के मर्म को समझ कर सुरसा विशालकाय राक्षसनी का रूप धारण कर के समुद्र के मध्य में जा कर खड़ी हो गई और उसने अपने रूप को अत्यन्त विकृत बना लिया। हनुमान को अपने सम्मुख पा कर वह बोली, आज मैं तुम्हें अपना आहार बना कर अपनी क्षुधा को शान्त करूँगी। मैं चाहती हूँ, तुम स्वयं मेरे मुख में प्रवेश करो ताकि मुझे तुम्हें खाने के लिये प्रयत्न न करना पड़े। सुरसा के शब्दों को सुन कर हनुमान बोले, तुम्हारी इच्छा पूरी करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु इस समय मैं अयोध्या के राजकुमार रामचन्द्र जी के कार्य से जा रहा हूँ। उनकी पत्नी को रावण चुरा कर लंका ले गया है। मैं उनकी खोज करने के लिये जा रहा हूँ तुम भी राम के राज्य में रहती हो, इसलिये इस कार्य में मेरी सहायता करना तुम्हारा कर्तव्य है। लंका से मैं जब अपना कार्य सिद्ध कर के लौटूँगा, तब अवश्य तुम्हारे मुख में प्रवेश करूँगा। यह मैं तुम्हें वचन देता हूँ। हनुमान की प्रतिज्ञा पर ध्यान न देते हुये सुरसा बोली, जब तक तुम मेरे मुख में प्रवेश न करोगे, मैं तुम्हारे मार्ग से नहीं हटूँगी। यह सुन कर हनुमान बोले, अच्छा तुम अपने मुख को अधिक से अधिक खोल कर मुझे निगल लो। मैं तुम्हारे मुख में प्रवेश करने को तैयार हूँ। यह कह कर महाबली हनुमान ने योगशक्ति से अपने शरीर का आकार बढ़ा कर चालीस कोस का कर लिया। सुरसा भी अपू्र्व शक्तियों से सम्पन्न थी। उसने तत्काल अपना मुख अस्सी कोस तक फैला लियाा हनुमान ने अपना शरीर एक अँगूठे के समान छोटा कर लिया और तत्काल उसके मुख में घुस कर बाहर निकल आये। फिर बोले, अच्छा सुरसा, तुम्हारी इच्छा पूरी हुई अब मैं जाता हूँ। प्रणाम! इतना कह कर हनुमान आकाश में उड़ गये। पवनसुत थोड़ी ही दूर गये थे कि सिंहिका नामक राक्षसनी की उन पर दृष्टि पड़ी। वह हनुमान को खाने के लिये लालयित हो उठी। वह छाया ग्रहण विद्या में पारंगत थी। जिस किसी प्राणी की छाया पकड़ लेती थी, वह उसके बन्धन में बँधा चला आता था। जब उसने हनुमान की छाया को पकड़ लिया तो हनुमान की गति अवरुद्ध हो गई। उन्होंने आश्चर्य से सिंहिका की ओर देखा। वे समझ गये, सुग्रीव ने जिस अद्भुत छायाग्राही प्राणी की बात कही थे, सम्भवतः यह वही है। यह सोच कर उन्होंने योगबल से अपने शरीर का विस्तार मेघ के समान अत्यन्त विशाल कर लिया। सिंहिंका ने भी अपना मुख तत्काल आकाश से पाताल तक फैला लिया और गरजती हई उनकी ओर दौड़ी। यह देख कर हनुमान अत्यन्त लघु रूप धारण करके उसके मुख में जा गिरे और अपने तीक्ष्ण नाखूनों से उसके मर्मस्थलों को फाड़ डाला।http://vnita37.blogspot.com/2022/07/8-by-1-2-3-4-5-6-7-8-8.html इसके पश्चात् बड़ी फुर्ती से बाहर निकल कर आकाश की ओर उड़ चले। राक्षसनी क्षत-विक्षत हो कर समुद्र में गिर पड़ी और मर गई।.

हनुमान का सागर पार करना🙏🙏  बड़े बड़े गजराजों से भरे हुए वनिता पर्वत के समतल प्रदेश में खड़े हुए हनुमान जी वहाँ जलाशय में स्थित हुए विशालकाय हाथी के समान जान पड़ते थे। सूर्य, इन्द्र, पवन, ब्रह्मा आदि देवों को प्रणाम कर हनुमान जी ने समुद्र लंघन का दृढ़ निश्चय कर लिया और अपने शरीर को असीमित रूप से बढ़ा लिया। उस समय वे अग्नि के समान जान पड़ते थे।  उन्होंने अपने साथी वानरों से कहा, हे मित्रों! जैसे श्री रामचन्द्र जी का छोड़ा हुआ बाण वायुवेग से चलता है वैसे ही तीव्र गति से मैं लंका में जाउँगा और वहाँ पहुँच कर सीता जी की खोज करूँगा। यदि वहाँ भी उनका पता न चला तो रावण को बाँध कर रामचन्द्र जी के चरणों में लाकर पटक दूँगा। आप विश्वास रखें कि मैं सर्वथा कृतकृत्य होकर ही सीता के साथ लौटूँगा अन्यथा रावण सहित लंकापुर को ही उखाड़ कर लाउँगा।  इतना कह कर हनुमान आकाश में उछले और अत्यन्त तीव्र गति से लंका की ओर चले। उनके उड़ते ही उनके झटके से साल आदि अनेक वृक्ष पृथ्वी से उखड़ गये और वे भी उनके साथ उड़ने लगे। फिर थोड़ी दूर तक उड़ने के पश्चात् वे वृक्ष एक-एक कर के समुद्र में गिरने लगे। वृक...

हनुमान जी का लंका में प्रवेश🙏🙏 चार सौ योजन अलंघनीय समुद्र को लाँघ कर महाबली हनुमान जी त्रिकूट नामक पर्वत के शिखर पर स्वस्थ भाव से खड़े हो गये। कपिश्रेष्ठ ने वहाँ सरल (चीड़), कनेर, खिले हुए खजूर, प्रियाल (चिरौंजी), मुचुलिन्द (जम्बीरी नीबू), कुटज, केतक (केवड़े), सुगन्धपूर्ण प्रियंगु (पिप्पली), नीप (कदम्ब या अशोक), छितवन, असन, कोविदार तथा खिले हुए करवीर भी देखे। फूलों के भार से लदे हुए तथा मुकुलित (अधखिले), बहुत से वृक्ष भी उन्हें दृष्टिगोचर हुए जिनकी डालियाँ झूम रही थीं और जिन पर नाना प्रकार के पक्षी कलरव कर रहे थे। हनुमान जी धीरे धीरे अद्भुत शोभा से सम्पन्न रावणपालित लंकापुरी के पास पहुँचे। उन्होंने देखा, लंका के चारों ओर कमलों से सुशोभित जलपूरित खाई खुदी हुई है। वह महापुरी सोने की चहारदीवारी से घिरी हुई हैं। श्वेत रंग की ऊँची ऊँची सड़कें उस पुरी को सब ओर से घेरे हुए थीं। सैकड़ों गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ ध्वजा-पताका फहराती हुई उस नगरी की शोभा बढ़ा रही हैं। उस पुरी के उत्तर द्वार पर पहुँच कर वानरवीर हुनमान जी चिन्ता में पड़ गये। लंकापुरी भयानक राक्षसों से उसी प्रकार भरी हुई थी जैसे कि पाताल की भोगवतीपुरी नागों से भरी रहती है। हाथों में शूल और पट्टिश लिये बड़ी बड़ी दाढ़ों वाले बहुत से शूरवीर घोर राक्षस लंकापुरी की रक्षा कर रहे थे। नगर की इस भारी सुरक्षा, उसके चारों ओर समुद्र की खाई और रावण जैसे भयंकर शत्रु को देखकर हनुमान जी विचार करने लगे कि यदि वानर वहाँ तक आ जायें तो भी वे व्यर्थ ही सिद्ध होंगे क्योंकि युद्ध द्वारा देवता भी लंका पर विजय नहीं पा सकते। रावणपालित इस दुर्गम और विषम (संकटपूर्ण) लंका में महाबाहु रामचन्द्र आ भी जायें तो क्या कर पायेंगे? राक्षसों पर साम, दान और भेद की नीति का प्रयोग असम्भव दृष्टिगत हो रहा है। यहाँ तो केवल चार वेगशाली वानरों अर्थात् बालिपुत्र अंगद, नील, मेरी और बुद्धिमान राजा सुग्रीव की ही पहुँच हो सकती है। अच्छा पहले यह तो पता लगाऊँ कि विदेहकुमारी सीता जीवित भी है या नहीं? जनककिशोरी का दर्शन करने के पश्चात् ही मैँ इस विषय में कोई विचार करूँगा। उन्होंने सोचा कि मैं इस रूप से राक्षसों की इस नगरी में प्रवेश नहीं कर सकता क्योंकि बहुत से क्रूर और बलवान राक्षस इसकी रक्षा कर रहे हैं। जानकी की खोज करते समय मुझे स्वयं को इन महातेजस्वी, महापराक्रमी और बलवान राक्षसों से गुप्त रखना होगा। अतः मुझे रात्रि के समय ही नगर में प्रवेश करना चाहिये और सीता का अन्वेषण का यह समयोचित कार्य करने के लिये ऐसे रूप का आश्रय लेना चाहिये जो आँख से देखा न जा सके, मात्र कार्य से ही यह अनुमान हो कि कोई आया था। देवताओं और असुरों के लिये भी दुर्जय लंकापुरी को देखकर हनुमान जी बारम्बार लम्बी साँस खींचते हुये विचार करने लगे कि किस उपाय से काम लूँ जिसमें दुरात्मा राक्षसराज रावण की दृष्टि से ओझल रहकर मैं मिथिलेशनन्दिनी जनककिशोरी सीता का दर्शन प्राप्त कर सकूँ। अविवेकपूर्ण कार्य करनेवाले दूत के कारण बने बनाये काम भी बिगड़ जाते हैं। यदि राक्षसों ने मुझे देख लिया तो रावण का अनर्थ चाहने वाले श्री राम का यह कार्य सफल न हो सकेगा। अतः अपने कार्य की सिद्धि के लिये रात में अपने इसी रूप में छोटा सा शरीर धारण करके लंका में प्रवेश करूँगा और घरों में घुसकर जानकी जी की खोज करूँगा।http://vnita37.blogspot.com/2022/07/8-by-1-2-3-4-5-6-7-8-8.html ऐसा निश्चय करके वीर वानर हनुमान सूर्यास्त की प्रतीक्षा करने लगे। सूर्यास्त हो जाने पर रात के समय उन्होंने अपने शरीर को छोटा बना लिया और उछलकर उस रमणीय लंकापुरी में प्रवेश कर गये।.http://vnita37.blogspot.com/2022/07/8-by-1-2-3-4-5-6-7-8-8.html

हनुमान जी का लंका में प्रवेश🙏🙏  चार सौ योजन अलंघनीय समुद्र को लाँघ कर महाबली हनुमान जी त्रिकूट नामक पर्वत के शिखर पर स्वस्थ भाव से खड़े हो गये। कपिश्रेष्ठ ने वहाँ सरल (चीड़), कनेर, खिले हुए खजूर, प्रियाल (चिरौंजी), मुचुलिन्द (जम्बीरी नीबू), कुटज, केतक (केवड़े), सुगन्धपूर्ण प्रियंगु (पिप्पली), नीप (कदम्ब या अशोक), छितवन, असन, कोविदार तथा खिले हुए करवीर भी देखे। फूलों के भार से लदे हुए तथा मुकुलित (अधखिले), बहुत से वृक्ष भी उन्हें दृष्टिगोचर हुए जिनकी डालियाँ झूम रही थीं और जिन पर नाना प्रकार के पक्षी कलरव कर रहे थे।  हनुमान जी धीरे धीरे अद्भुत शोभा से सम्पन्न रावणपालित लंकापुरी के पास पहुँचे। उन्होंने देखा, लंका के चारों ओर कमलों से सुशोभित जलपूरित खाई खुदी हुई है। वह महापुरी सोने की चहारदीवारी से घिरी हुई हैं। श्वेत रंग की ऊँची ऊँची सड़कें उस पुरी को सब ओर से घेरे हुए थीं। सैकड़ों गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ ध्वजा-पताका फहराती हुई उस नगरी की शोभा बढ़ा रही हैं।  उस पुरी के उत्तर द्वार पर पहुँच कर वानरवीर हुनमान जी चिन्ता में पड़ गये। लंकापुरी भयानक राक्षसों से उसी प्रका...

पूजन में ये 8 चीजें सीधे जमीन पर नहीं रखनी चाहिए.... .By वनिता कासनियां पंजाब ? अच्छे और सुखी जीवन के लिए शास्त्रों के अनुसार कई ऐसे नियम बनाए गए हैं, जिनका पालन करना अनिवार्य है। यहां जानिए ब्रह्मवैवर्तपुराण में बताए गए ऐसे काम जो कभी नहीं करना चाहिए। जो लोग ये काम करते हैं, उनके घर-परिवार में दरिद्रता बढ़ने लगती है।इन चीजों को जमीन पर न रखें......1. दीपक, 2. शिवलिंग, 3. शालग्राम (शालिग्राम), 4. मणि, 5. देवी-देवताओं की मूर्तियां, 6. यज्ञोपवीत (जनेऊ), 7. सोना और 8. शंख, इन 8 चीजों को कभी भी सीधे जमीन पर नहीं रखना चाहिए। इन्हें नीचे रखने से पहले कोई कपड़ा बिछाएं या किसी ऊंचे स्थान पर रखें।इन तिथियों पर ध्यान रखें ये बातें.......हिन्दी पंचांग के अनुसार किसी भी माह की अमावस्या, पूर्णिमा, चतुर्दशी और अष्टमी तिथि पर स्त्री संग, तेल मालिश और मांसाहार का सेवन नहीं करना चाहिए।सुबह उठते ही ध्यान रखें ये बातें.....स्त्री हो या पुरुष, सुबह उठते ही इष्टदेव का ध्यान करते हुए दोनों हथेलियों को देखना चाहिए। इसके बाद अधिक समय तक बिना नहाए नहीं रहना चाहिए। रात में पहने हुए कपड़ों को शीघ्र त्याग देना चाहिए।इनका अनादर नहीं करना चाहिए........हमें किसी भी परिस्थिति में पिता, माता, पुत्र, पुत्री, पतिव्रता पत्नी, श्रेष्ठ पति, गुरु, अनाथ स्त्री, बहन, भाई, देवी-देवता और ज्ञानी लोगों का अनादर नहीं करना चाहिए। इनका अनादर करने पर यदि व्यक्ति धनकुबेर भी हो तो उसका खजाना खाली हो जाता है। इन लोगों का अपमान करने वाले व्यक्ति को महालक्ष्मी हमेशा के लिए त्याग देती हैं।रविवार को ध्यान रखें ये बातें......रविवार के दिन कांस्य के बर्तन में खाना नहीं खाना चाहिए। इस दिन मसूर की दाल, अदरक, लाल रंग की खाने की चीजें भी नहीं खाना चाहिए।तय तिथि पर पूरा करना चाहिए दान का संकल्प.......यदि हमने किसी को दान देने का संकल्प किया है तो इस संकल्प को तय तिथि पर किसी भी परिस्थिति में पूरा करना चाहिए। दान देने में यदि एक दिन का विलंब होता है तो दुगुना (दोगुणा) दान देना चाहिए। यदि एक माह का विलंब होता है तो दान सौगुना हो जाता है। दो माह बितने पर दान की राशि सहस्त्रगुनी यानी हजार गुना हो जाती है। अत: दान के लिए जब भी संकल्प करें तो तय तिथि पर दान कर देना चाहिए। अकारण दान देने में विलंब नहीं करना चाहिए।दिन के समय न करें समागम........दिन के समय और सुबह-शाम पूजन के समय स्त्री और पुरुष को समागम नहीं करना चाहिए। जो लोग यह काम करते हैं, उन्हें महालक्ष्मी की कृपा प्राप्त नहीं होती है। कई प्रकार के रोगों का सामना करना पड़ता है। इसके कारण स्त्री और पुरुष, दोनों को आंख और कान से जुड़े रोग हो सकते हैं। साथ ही, इसे पुण्यों का विनाश करने वाला कर्म भी माना गया है।घर में प्रवेश करते समय ध्यान रखें ये बातें........हम जब भी कहीं बाहर से लौटकर घर आते हैं तो सीधे घर में प्रवेश नहीं करना चाहिए। मुख्य द्वार के बाहर ही दोनों पैरों को साफ पानी से धो लेना चाहिए। इसके बाद ही घर में प्रवेश करें। ऐसा करने पर घर की पवित्रता और स्वच्छता बनी रहती है।पुरुषों को ध्यान रखनी चाहिए ये बात.....पुरुषों को कभी भी पराई स्त्रियों को बुरी नजर से नहीं देखना चाहिए। कभी भी मल-मूत्र को भी नहीं देखना चाहिए। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार ये काम विनाश की ओर ले जाते हैं। इनसे दरिद्रता बढ़ती है।स्त्रियां को ध्यान रखनी चाहिए ये बातें........जो स्त्रियां अपने पति को डांटती हैं, सताती हैं, पति की आज्ञा का पालन नहीं करती हैं, सम्मान नहीं करती हैं, उनके पुण्य कर्मों का क्षय होता है। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार जो स्त्रियां वाणी द्वारा दुख पहुंचाती हैं वे अगले जन्म में कौए का जन्म पाती हैं। पति के साथ हिंसा करने वाली स्त्री का अगला जन्म सूअर के रूप में होता है।ऐसे लोगों से दूर रहना चाहिए.........किसी बुरे चरित्र वाले इंसान के साथ एक स्थान पर सोना, खाना-पीना, घूमना-फिरना वर्जित किया गया है। क्योंकि किसी व्यक्ति के साथ बात करने से, शरीर को छूने से, एक स्थान पर सोने से, साथ भोजन करने से, एक-दूसरे के गुणों और दोष आपस में संचारित अवश्य होते हैं। जिस प्रकार पानी पर तेल की बूंद गिरते ही वह फैल जाती है, ठीक उसी प्रकार बुरे चरित्र वाले व्यक्ति के संपर्क में आते ही बुराइयां हमारे अंदर प्रवेश कर जाती हैं।यह पुराण वैष्णव पुराण है। इस पुराण के केंद्र में भगवान श्रीहरि और श्रीकृष्ण हैं। यह चार खंडों में विभाजित है। पहला खंड ब्रह्म खंड है, दूसरा प्रकृति खंड है, तीसरा गणपति खंड है और चौथा श्रीकृष्ण जन्म खंड है। इस पुराण में श्रेष्ठ जीवन के लिए कई सूत्र बताए गए हैं।

पूजन में ये 8 चीजें सीधे जमीन पर नहीं रखनी चाहिए..... By  वनिता कासनियां पंजाब  ? अच्छे और सुखी जीवन के लिए शास्त्रों के अनुसार कई ऐसे नियम बनाए गए हैं, जिनका पालन करना अनिवार्य है। यहां जानिए ब्रह्मवैवर्तपुराण में बताए गए ऐसे काम जो कभी नहीं करना चाहिए। जो लोग ये काम करते हैं, उनके घर-परिवार में दरिद्रता बढ़ने लगती है। इन चीजों को जमीन पर न रखें...... 1. दीपक, 2. शिवलिंग, 3. शालग्राम (शालिग्राम), 4. मणि, 5. देवी-देवताओं की मूर्तियां, 6. यज्ञोपवीत (जनेऊ), 7. सोना और 8. शंख, इन 8 चीजों को कभी भी सीधे जमीन पर नहीं रखना चाहिए। इन्हें नीचे रखने से पहले कोई कपड़ा बिछाएं या किसी ऊंचे स्थान पर रखें। इन तिथियों पर ध्यान रखें ये बातें....... हिन्दी पंचांग के अनुसार किसी भी माह की अमावस्या, पूर्णिमा, चतुर्दशी और अष्टमी तिथि पर स्त्री संग, तेल मालिश और मांसाहार का सेवन नहीं करना चाहिए। सुबह उठते ही ध्यान रखें ये बातें..... स्त्री हो या पुरुष, सुबह उठते ही इष्टदेव का ध्यान करते हुए दोनों हथेलियों को देखना चाहिए। इसके बाद अधिक समय तक बिना नहाए नहीं रहना चाहिए। रात में पहने हुए ...