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Name of God RamBy social worker Vanita Kasani PunjabRead in another languagedownloadTake careEditRamnaam literally means 'Rama's name'. 'Ramnam' refers to devotion to Lord Rama, the ,incarnation of Vishnu.

रामनाम का शाब्दिक अर्थ है - 'राम का नाम'। 'रामनाम' से आशय विष्णु के अवतार राम की भक्ति से है या फिर निर्गुण निरंकार परम ब्रह्म से। हिन्दू धर्म के विभिन्न सम्रदायों में राम के नाम का कीर्तन या जप किया जाता है। "श्रीराम जय राम जय जय राम" एक प्रसिद्ध मंत्र है जिसे पश्चिमी भारत में समर्थ रामदास ने लोकप्रिय बनाया।

परिचय

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भारतीय साहित्य में वैदिक काल से लेकर गाथा काल तक रामसंज्ञक अनेक महापुरुषों का उल्लेख मिलता है किंतु उनमें सर्वाधिक प्रसिद्धि वाल्मीकि रामायण के नायक अयोध्यानरेश दशरथ के पुत्र राम की हुई। उनका चरित् जातीय जीवन का मुख्य प्रेरणास्रोत बन गया। शनै: शनै: वे वीर पुरुष से पुरुषोत्तम और पुरुषोत्तम से परात्पर ब्रह्म के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। ईसा की दूसरी से चौथी शताब्दी के बीच विष्णु अथवा नारायण के अवतार के रूप में उनकी पूजा भी आरंभ हो गई।

आलवारों में शठकोप, मधुर कवि तथा कुलशेखर और वैष्णवाचार्यों में रामानुज ने रामावतार में विशेष निष्ठा व्यक्त की परंतु चौदहवीं शताब्दी के अंत तक रामोपासना व्यक्तिगत साधना के रूप में ही पल्लवित होती रही; उसे स्वतंत्र संप्रदाय के रूप में संगठित करने का श्रेय स्वामी रामानंद को प्राप्त है। उन्होंने रामतारक अथवा षडक्षर राममंत्र को वैष्णव साधना के इतिहास में पहली बार 'बीज मंत्र' का गौरव प्रदान किया और मनुष्यमात्र को रामनाम जप का अधिकार घोषित किया। इन्हीं की परंपरा में आविर्भूत गोस्वामी तुलसीदास ने इस विचारधारा का समर्थन करते हुए रामनाम को 'मंत्रराज', 'बीज मंत्र' तथा 'महामंत्र' की संज्ञा देकर कलिग्रस्त जीवों के उद्धार का एकमात्र साधन बताया। उन्होंने उसे वेदों का प्राण, त्रिदेवों का कारण और ब्रह्म राम से भी अधिक महिमायुक्त कहकर नामाराधन में एकांत निष्ठा व्यक्त की।

सांप्रदायिक रामभक्ति के विकसित होने पर अर्थानुसंधानपूर्वक रामनाम जप साधना का एक आवश्यक अंग माना जाने लगा। अन्य नामों की अपेक्षा ब्रह्म के गुणों की अभिव्यक्ति की क्षमता 'राम' में अधिक देखकर उसे प्रणव की समकक्षता की महत्ता प्रदान की गई। वैष्णव भक्तों ने सांप्रदायिक विश्वासों के अनुकूल 'रामनाम' की विभिन्न व्यख्याएँ प्रस्तुत कीं। सगुणमार्गी मर्यादावादी भक्तों ने उसे लोकसंस्थापनार्थ ऐश्वर्यपूर्ण लीलाओं के विधायक रामचंद्र और रसिक भक्तों ने सौंदर्य माधुर्यादि दिव्य गुणों से विभूषित साकेतविहारी 'युगल सरकार' का व्यंजक बताया किंतु निर्गुणमार्गी संतों ने उसे योगियों के चित्त को रमानेवाले, सर्वव्यापक, सर्वातर्यामी, जगन्निवास निराकार ब्रह्म का ही बोधक माना।

रामनाम की इस लोकप्रियता ने 'रामभक्ति' के विकास का मार्ग प्रशस्त कर दिया। उसकी असीम तारक शक्ति, सर्वसुलभता तथा भक्तवत्सलता का अनुभव कर भावुक उपासकों ने अर्चन तथा पादसेवन को छोड़कर नाम के प्रति सप्तधा भक्ति अर्पित की, जिनमें श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण को विशेष महत्व मिला। तुलसी ने उसे स्वामी और सखा दोनों रूपों में ध्येय माना और बनादास ने उससे मधुर दास्यभाव का संबंध स्थापित किया। यह नामोपासना रामभक्ति शाखा में ही सीमित न रही। लीलापुरुषोत्तम के आराधक सूर और मीरा ने भी अपनी कृतियों में प्रगाढ़ रामनामासक्ति व्यंजित की है।

रामभक्ति की रसिक शाखा में नामभक्ति की प्राप्ति के लिए नामसाधना की अनेक प्रणालियाँ प्रवर्तित हुई। रासखा ने चित्रकूट के कामदवन में अनुष्ठानपूर्वक बारह वर्ष तक और बनादास ने अयोध्या के रामघाट पर गुफा बनाकर चौदह वर्ष तक अहर्निश नामजप में लीन रकर आराध्य का दर्शनलाभ किया। युगलानन्यशरण ने नाम अभ्यास की एक अन्य व्यवस्थित प्रक्रिया प्रवर्तित की। इसकी तीन भूमिकाएँ हैं - भूमिशोधन, नामजप और नामध्यान। प्रथम के अंतर्गत संयम नियम द्वारा नामजप की पात्रता प्राप्त करने के लिए उपयुक्त पृष्ठभमि तैयार की जाती है। दूसरी में नाम के महत्व, अर्थपरत्व तथा जपविधि का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। नाध्यानसंज्ञक तीसरी स्थिति नामसाधना का अंतिम सोपान है। इसके तीन स्तर हैं - ताड़नध्यान, आरतीध्यान और मौक्तिकध्यान। ताड़न का अर्थ है दंड देना। अत: प्रथम अवस्था में रामनाम की निरंतर चोट देकर अंत:करण से वासना निकाली जाती है। विषयनिवृत्ति से अंत:स्थ ईश्वर का ज्योतिर्मय स्वरूप प्रकट हो जाता है। उसकी दिव्य आभा से साधक के मानसनेत्र खुल जाते हैं। तब वह अपनी उद्बुद्ध प्रज्ञा से ध्येय का अभिनंदन अथवा आरती करता है। तीसरी अवस्था में भवबंधन से मुक्त साधक अपने स्थूल शरीर से पृथक् चित् देह अथवा भावदेह का साक्षात्कार कर परमपुरुषार्थ की प्राप्ति करता है। इसके फलस्वरूप लोकयात्रा में जीवन्मुक्ति का सुख भोगता हुआ साधक स्वेच्छानुसार शरीर त्यागकर उपास्य की नित्यलीला में प्रवेश करता है।

स्वामी रामानंद से प्रत्यक्ष प्रेरणा ग्रहण करने के कारण अवतारवाद के घोर विरोधी संतमत में भी रामनाम की प्रतिष्ठा अक्षुण्ण बनी रही। आदि संत कबीर ने निर्गुण ब्रह्म से उसका तादात्म्य स्थापित कर नामसाधना को एक नया मोड़ दिया। उनके परवर्ती नानक, दादू, गुलाल, जगजीवन आदि तत्वज्ञ महात्माओं ने एक स्वर से उसे निर्गुणपंथ का मूल मंत्र स्वीकार किया। इनकी नाम अथवा 'जिकिर' साधना तांत्रिक आदर्श पर निर्मित होने से प्रणायाम की जटिल विधियों से समन्वित थी। अँगुलियों से माला फेरने और जिह्वा से रामनाम रटने को निर्थक बताते हुए इन संतों ने आंतरिक चित्तवृत्ति के साथ परम तत्व के परामर्श को ही जप की संज्ञा दी, जिसकी सिद्धि इड़ा पिंगला को छोड़कर सुषुम्ना मार्ग से श्वास का अवधारण करके रामनामस्थ होने से होती है, और 'अनाहत नाम' सुनाई पड़ने लगता है। उससे नि:सृत रामनाम-रस पानकर व्यष्टिजीव आत्मविभोर हो जाता है संतों ने नामामृत पान के लिए कायायोग द्वारा परम तत्व के साथ एकात्मता का अनुभव आवश्यक बताया है। मात्र भावावेशपूर्ण नामोच्चारण से इसकी उपलब्धि असंभव है। मनरति के तनरति की यह अनिवार्यता संतों की नामसाधना में योगतत्व की प्रमुखता सिद्ध करती है।

संतों तथा वैष्णव भक्तों द्वारा प्रवर्तित नामसाधना की उपर्युक्त पद्धतियों में विभिन्नता का मुख्य कारण है उनका सैद्धांतिक मतभेद। साकारवादी, भक्ति में शुद्ध प्रेम अथवा भाव तत्व को अधिक महत्व देते हैं, किंतु निराकारवादी, ज्ञान तथा योग तत्व को। सगुणोपासक रूप के बिना नाम की कल्पना ही नहीं कर सकते। अत: वे आराध्य के आंगिक सौंदर्य तथा लीलामाधुर्य के वर्णन एवं ध्यान में मग्न होते हैं। इस स्थिति में उपासक के हृदय में उपास्य से अपने पृथक् अस्तित्व की अनुभूति निरंतर होती रहती है किंतु नाम रस से छके हुए तत्वज्ञान-स्पृही निर्गुणमार्गी सत वितर्कहीन स्थिति में पहुँचकर अपने को भूल जाते हैं। वहाँ ध्याता और ध्येय की पृथक् सत्ता का आभास ही नहीं होता। उनकी अंतर्मुखी चेतना ब्रह्मानुभव ने निरत हो तद्रूप हो जाती है।

तुम्हरो मंत्र बिभीषण माना ,,,,,,,,


By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब

तुम्हरो मंत्र बिभीषण माना । लंकेश्वर भए सब जग जाना ।। (17) 
अर्थ : आपके उपदेश का विभीषण ने पूर्णत: पालन किया, इसी कारण वे लंका के राजा बनें, इसको सब संसार जानता है । हनुमानजी ने विभीषण को कौनसा ‘मन्त्र’ दिया उसका वर्णन हमें रामचरित मानस में (सुन्दरकाण्ड में) मिलता है । जब हनुमानजी लंका में सीता माता की खोज कर रहे थे तब लंका मेंं तमोगुणी आचार-व्यवहार के बीच श्री हनुमानजी को प्रभु कृपासे संत विभीषण का घर दिखलायी देता है ।
भवन एक पुनि दीख सुहावा । हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा ।।रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाई।
नव तुलसिका वृंद तहँ देखि हरष कपिराई ।। (मानस 5/4 /4:5/5)

उस घोर तमोगुणी आचार-विचार से लिप्त नगरी में रामायुध चिन्हों द्वारा अंकित गृह और पवित्र तुलसी का झु्रंड महान आश्चर्य करा देता है! कपि हनुमान अपनी खोज के मध्य तर्क-वितर्क करने लगते हैं, उसी समय विभीषण जाग उठते हैं ‘राम राम’ का उच्चारण करते हैं । लंका की घोर प्रतिकुलताओं मे भी हनुमानजी को विभीषण मिल गये-
अब मोहि भा भरोस हनुमंता । बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ।।
संत को संत मिल ही जाते हैं । श्रीराम का नाम सुनते ही श्रीपवनपुत्र के मन में विश्वास हो गया कि ये निश्चय ही भगवद्भक्त पुरुष हैं। शरणागत वत्सल हनुमानजी तुरंत ब्राम्हण का वेष धारण कर भगवान का नाम लेने लगे। ‘राम’ नाम सुनते ही विभीषण तुरंत बाहर आए । उन्होने ब्राम्हण वेषधारी पवनपुत्र के चरणों मे अत्यन्त आदरपूर्वक प्रणाम किया । फिर उन्होने पूछा- ‘ब्राम्हण देवता! आप कौन है? मेरा मन कहता है कि आप श्री भगवान के भक्तों मे कोई हैं। कृपया मुझे अपना परिचय दीजिए। संसार-भय-नाशन श्री अंजनानन्दन ने अत्यन्त प्रेम पूर्वक मधुर वाणी में उत्तर दिया- ‘मैं परमपराक्रमी पवनदेव का पुत्र हूँ । मेरा नाम हनुमान है । मैं भगवान श्रीराम की पत्नी जगत्जननी जानकीजी का पता लगाने के लिये उनके आदेशानुसार यहाँ आया हूँ। आपको देखकर मुझे बडी प्रसन्नता हुई । कृपया आप भी अपना परिचय दीजिए ।’’भगवान श्रीराम के दूत श्री हनुमानजी को सन्मुख देखकर विभीषण की विचित्र स्थिति हो गयी । उनके नेत्रों मे प्रेमाश्रु भर आये, अंग पुलकित हो गये और वाणी अवरुद्ध हो गयी । किसी प्रकार अपने को संभालकर उन्होने अत्यन्त आदरपूर्वक कहा-‘हनुमानजी! मै राक्षसराज रावण का अनुज अधम विभीषण हूँ। किंतु आज आपके दर्शन कर मैं अपने सौभाग्य की प्रशंसा करता हूँ। मैं तो इस असुर-पुरी में दाँतो के मध्य जीभ की भाँति जीवन के दिन व्यतीत कर रहा हूँ।
सुनहु पवनसुत रहिनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी ।।
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा । करिहहिं .पा भानुकुल नाथा ।। (मानस 6/1)
विभीषण ने हनुमानजी से आगे कहा- ‘पवनपुत्र’! मैं राक्षसकुलोत्पन्न तामसिक प्राणी हूँ। मुझसे भजन होता नहीं, प्रभु के चरणों में मेरी प्रीति भी नहीं है । फिर कया दयाधाम सीतापति श्रीराम कभी दीन-हीन, असहाय, निरुपाय और सर्वथा अनाथ जानकर मुझ पर भी कृपा करेंगे? क्या मुझे भी उनके सुर-मुनि-सेवित चरण कमलो की पावनतम रज प्राप्त हो सकेगी? इतना तो मेरे मन में सुदृढ विश्वास हो गया कि भगवान की कृपा के बिना संतोका दर्शन नहीं होता । आज जब करुणामय श्रीराम ने मुझपर अनुग्रह किया है, तभी आपने कृपापूर्वक स्वयं मुझ अधम के द्वारपर पधारने का कष्ट स्वीकार किया है ।
भक्तानुकम्पी श्रीपवनपुत्र भक्त विभीषण की भगवत्प्रीति देखकर मन ही मन पुलकित हुए । उन्होने विभीषण से अत्यन्त प्रीतिपूर्वक मधुर वाणी में कहा-‘विभीषणजी! आप बडे भाग्यवान हैं । जिन करुणावतार प्रभु की भक्ति योगीन्द्र-मुनीन्द्रोंको भी सुलभ नहीं, वह प्रभु-चरणों में अद्भूत भक्ति आपको सहज प्राप्त है । भगवान श्रीराम जाति-पाँति, कुल, मान-बडाई आदि की ओर भूल कर भी दृष्टि नहीं डालते । वे तो बस, निश्छल हृदय की प्रीति-केवल शुद्ध प्रीति चाहते हैं और इस प्रीति पर वे भक्त के हाथों बिक जाते हैं । उनके पीछे पीछे डोलते हैं । आप देखिये न, भला मैने किस श्रेष्ठ वंश में जन्म लिया है । सब प्रकार से नीच चंचल वानर हूँ! यदि प्रात:काल कोई हम लोगों का नाम भी ले ले तो उसे उपवास करना पडे।

कहहु कवन मै परम कुलीना । कपि चंचल सबही बिधि हिना ।।
 प्रात लेइ जो नाम हमारा । तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ।।(मानस 6/4)

इसप्रकार के मुझ अधम पर भी भक्तवत्सल प्रभु ने कृपा की । उन्होने मुझे स्वजन और सेवक बना लिया। फिर आप तो उन्हे अपना सर्वस्व समझ रहे हैं; निश्चय ही आप तो उन्हे अपना सर्वस्व समझ रहे हैं; निश्चय ही आप पर उनकी अद्भूत कृपा है आप बडे भग्यवान हैं । इस असुरपूरी में आपसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, यह भी मेरे स्वामी श्री रघुनाथजी की ही कृपाका फल है ।’

सुनहु विभीषण प्रभु कै रीती । करहिं सदा सेवक पर प्रीती ।। (मानस 7/3)

यह ‘मन्त्र’ हनुमानजी ने विभीषणजी को दिया । भगवान राम शरणागत वत्सल हैं और उनकी शरण में जाने से मुझ जैसे अधम को भी जरुर स्वीकार करेंगे क्योंकि उनको हनुमानजीका दिया हुआ ‘मन्त्र’ का स्मरण था । विभीषणने रावण को अत्यन्त आदपूर्वक अनेकों बार समझाने का प्रयत्न किया किन्तु जब रावण नहीं माना तथा रावण ने विभीषण को धिक्कारते हुए उसका त्याग कर दिया तब विभीषन ने भक्त वत्सल भगवान राम की शरण में जाने का निश्चय किया । उनको हनुमानजी का दिया हुआ मन्त्र का स्मरण हुआ कि भक्तवत्सल भगवान शरणागतों को शरण देते है, उन्हे अपना लेते है । बस, विभीषण अपने मन्त्रियोंसहित श्री राघवेन्द्र की चरणों की शरण लेने चल पडे। विभीषण अब भगवान राम की शरण में आते है तो राम सबसे पूछते है कि शत्रुराज्य का सचिव और रावण का भाई विभीषण को स्वपक्ष में लेना या नही? सभीने विरोधमें मत व्यक्त किया । सबसे पहले सुग्रीव जैसे प्रभावी वीर ने अपनी राय दी कि उसका स्वीकार करना यानी खतरा मोल लेना है। वह कदाचित् अच्छा भी होगा, हम उसे बुरा नहीं कहते परन्तु इस युद्ध के समय उसका स्वीकार करने में खतरा है ।

 सभी का यह मत था । प्रभु राम ने अन्त में हनुमानजी से उनका मत पूछा । जिसे राम का दूसरा प्राण माना जाता है उस हनुमान से राम पूछते हैं कि विभीषण को स्वीकार करना चाहिए या नही? हनुमानजी ने तुरन्त जबाब दिया विभीषण को स्वीकार करना चाहिए । सभी विरोध में होते हुए भी प्रभु रामचन्द्र ने विभीषण को स्वीकार किया। यदि हमें विभीषण की तरह अपने जीवन को प्रेमास्पद प्रभु के प्रेम में निमग्न करना है तो भगवान के द्वारा प्रतिपादित नियमों पर चलकर उन्हे प्राप्त करने का यथाशिघ्र प्रयास करना चाहिए । शरणागति के इन अंगो को आत्मसात करके भगवत्कैंकर्य प्राप्त कर अपना जीवन सफल बनाना चाहिए। हनुमानजी ने जो विभीषण को मंत्र दिया उस मंत्र को साधने का प्रयास करना चाहिए।

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हमेशा ध्यान में रखिये ---
" आप एक शुद्ध चेतना है यानि स्व ऊर्जा से प्रकाशित आत्मा ! माया (अज्ञान ) ने आपकी आत्मा के शुद्ध स्वरुप को छीन रखा है ! अतः माया ( अज्ञान ) से पीछा छुडाइये और शुद्ध चेतना को प्राप्त कर परमानन्द का सुख भोगिए !
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धर्मशील व्यक्ति ,,,,,,,
जिमि सरिता सागर महँ जाहीं l
जद्यपि ताहि कामना नाहीं ll
तिमि सुख सम्पति बिनहिं बुलाये l
धर्मशील पहँ जाइ सुहाये ll
जैसे सरिता (नदी ) उबड-खाबड़, पथरीले स्थानों को पार करते हुए पूर्ण रूपेण निष्काम भाव से समुद्र में जा मिलती है, उसी प्रकार धर्म-रथ पर आसीन मनुष्य के पास उसके न चाहते हुए भी समस्त सुख-सम्पत्ति, रिद्धियाँ-सिद्धियाँ स्वत: आ जाती हैं, सत्य तो यह है कि वे उसकी दासिता ग्रहण करने के लिए लालायित रहती है !
🌹मानवीय गुणों में एक प्रमुख गुण है "क्षमा" और क्षमा जिस भी मनुष्य के अन्दर है वो किसी वीर से कम नही है। तभी तो कहा गया है कि- " क्षमा वीरस्य भूषणं और क्षमा वाणीस्य भूषणं " क्षमा साहसी लोगों का आभूषण है और क्षमा वाणी का भी आभूषण है। यद्यपि किसी को दंडित करना या डाँटना आपके वाहुबल को दर्शाता है।
🌹मगर शास्त्र का वचन है कि बलवान वो नहीं जो किसी को दण्ड देने की सामर्थ्य रखता हो अपितु बलवान वो है जो किसी को क्षमा करने की सामर्थ्य रखता हो। अगर आप किसी को क्षमा करने का साहस रखते हैं तो सच मानिये कि आप एक शक्तिशाली सम्पदा के धनी हैं और इसी कारण आप सबके प्रिय बनते हो।
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,,,,सच्चे संतो की वाणी से अमृत बरसता है , आवश्यकता है ,,,उसे आचरण में उतारने की ....
जय गौमाता की 🙏👏🌹🌲🌿🌹
" जीवन का सत्य आत्मिक कल्याण है ना की भौतिक सुख !"
"एक माटी का दिया सारी रात अंधियारे से लड़ता है,
तू तो प्रभु का दिया है फिर किस बात से डरता है..."
हे मानव तू उठ और सागर (प्रभु ) में विलीन होने के लिए पुरुषार्थ कर ,,,,,,
जिसका मन लग गया भगवान मे उसका दीया भी जलेगा तुफान में
तन का दीपक मन की बाती जगमग ज्योत जले दिन राती।
कैसा खेल रचाया भगवान ने 🙏हरि ॐ नमो नारायणा 🙏
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला। ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला॥
प्रभु,आप जिस पर अनुकूल होते हैं, उसे तीनों प्रकार के भवशूल (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप) नहीं व्यापते...॥जय श्री राम॥
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"सत्य वचन में प्रीति करले,सत्य वचन प्रभु वास।
सत्य के साथ प्रभु चलते हैं, सत्य चले प्रभु साथ।। "
शरीर परमात्मा का दिया हुआ उपहार है ! चाहो तो इससे " विभूतिया " (अच्छाइयां / पुण्य इत्यादि ) अर्जित करलो चाहे घोरतम " दुर्गति " ( बुराइया / पाप ) इत्यादि !
परोपकारी बनो एवं प्रभु का सानिध्य प्राप्त करो !
प्रभु हर जीव में चेतना रूप में विद्यमान है अतः प्राणियों से प्रेम करो !
शाकाहार अपनाओ , करुणा को चुनो !
जय गौमाता की🚩☘️🚩☘️🚩

सन्दर्भ ग्रन्थसंपादित करें

  • डॉ॰ भगवतीप्रसाद सिंह : रामभक्ति में रसिक संप्रदाय;
  • डॉ॰ कामिल बुल्के : रामकथा;
  • डॉ॰ उदयभानु सिंह : तुलसीदर्शन मीमांसा;
  • डॉ॰ विश्वंभरनाथ उपाध्याय : संतवैष्णव काव्य पर तांत्रिक प्रभाव;
  • डॉ॰ मुंशीराम शर्मा : भक्ति का विकास;
  • डॉ॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी : रामानंद की हिंदी रचनाएँ
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